15 मई को मनाया जाता है विश्व परिवार दिवस आखिर क्या है इसकी खासियत देखें पूरी रिपोर्ट |

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RABG LIVE DESK : भौतिकवादी युग में एक-दूसरे की सुख-सुविधाओं की प्रतिस्पर्धा ने मन के रिश्तों को झुलसा दिया है. कच्चे से पक्के होते घरों की ऊँची दीवारों ने आपसी वार्तालाप को लुप्त कर दिया है. पत्थर होते हर आंगन में फ़ूट-कलह का नंगा नाच हो रहा है. आपसी मतभेदों ने गहरे मन भेद कर दिए है. बड़े-बुजुर्गों की अच्छी शिक्षाओं के अभाव में घरों में छोटे रिश्तों को ताक पर रखकर निर्णय लेने लगे है. फलस्वरूप आज परिजन ही अपनों को काटने पर तुले है. एक तरफ सुख में पडोसी हलवा चाट रहें है तो दुःख अकेले भोगने पड़ रहें है. हमें ये सोचना -समझना होगा कि अगर हम सार्थक जीवन जीना चाहते है तो हमें परिवार की महत्ता समझनी होगी और आपसी तकरारों को छोड़कर परिवार के साथ खड़ा होना होगा तभी हम बच पायंगे और ये समाज रहने लायक होगा.

परिवार, भारतीय समाज में, अपने आप में एक संस्था है और प्राचीन काल से ही भारत की सामूहिक संस्कृति का एक विशिष्ट प्रतीक है। संयुक्त परिवार प्रणाली या एक विस्तारित परिवार भारतीय संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशेषता रही है, जब तक कि शहरीकरण और पश्चिमी प्रभाव के मिश्रण ने उस संस्था को झटका देना शुरू नहीं किया। परिवार एक बुनियादी और महत्वपूर्ण सामाजिक संस्था है जिसकी व्यक्तिगत और साथ ही सामूहिक नैतिकता को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका है। परिवार सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों का पोषण और संरक्षण करता है।

परिवार एक बहुत ही तरल सामाजिक है और निरंतर परिवर्तन की प्रक्रिया में है। आधुनिकता समान-लिंग वाले जोड़ों (एलजीबीटी संबंध), सहवास या लिव-इन संबंधों, एकल-माता-पिता के घरों, अकेले रहने वाले या अपने बच्चों के साथ तलाक का एक बड़ा हिस्सा उभरने का गवाह बन रहा है। इस तरह के परिवारों को पारंपरिक रिश्तेदारी समूह के रूप में कार्य करना आवश्यक नहीं है और ये समाजीकरण के लिए अच्छी संस्था साबित नहीं हो सकती। भौतिकवादी युग में एक-दूसरे की सुख-सुविधाओं की प्रतिस्पर्धा ने मन के रिश्तों को झुलसा दिया है.

कच्चे से पक्के होते घरों की ऊँची दीवारों ने आपसी वार्तालाप को लुप्त कर दिया है. पत्थर होते हर आंगन में फ़ूट-कलह का नंगा नाच हो रहा है. आपसी मतभेदों ने गहरे मन भेद कर दिए है. बड़े-बुजुर्गों की अच्छी शिक्षाओं के अभाव में घरों में छोटे रिश्तों को ताक पर रखकर निर्णय लेने लगे है. फलस्वरूप आज परिजन ही अपनों को काटने पर तुले है. एक तरफ सुख में पडोसी हलवा चाट रहें है तो दुःख अकेले भोगने पड़ रहें है. हमें ये सोचना -समझना होगा कि अगर हम सार्थक जीवन जीना चाहते है तो हमें परिवार की महत्ता समझनी होगी और आपसी तकरारों को छोड़कर परिवार के साथ खड़ा होना होगा तभी हम बच पायंगे और ये समाज रहने लायक

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