सुतुही! जी हमारे पूर्वांचल वाले इसे यही कहते हैं

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थोड़ा पढ़े लिखे लोग सीपी कहने लगे थे और अब तो पिलर हो गया। पिलर सिर्फ नाम से नही हो गया बल्कि आकार से भी हो गया क्योंकि प्राकृतिक रूप से बनी ये सीपी अब नही दिखाई देती है बल्कि रंग बिरंगे नए डिजाइन वाले प्लास्टिक की बनी लोहे की प्लेट लगी पिलर ने इसकी जगह ले ली है।
नदी, पोखर, तालाब में ये पाई जाती थी। इसके अंदर कीड़ा रहता था और ये सीपी उसी कीड़े का घर या खोल होता था जिसके अंदर वो सुरक्षित रहता था।
तालाब या पोखर मे नहाते समय ये मिलते थे यदि बंद हो तो वापस पानी में डाल देते थे लेकिन यदि मुंह खुला हो कीड़ा अंदर नही हो तो घर ले आते थे। जिसे मेरी आजी पत्थर पर घिसकर छोटा सा छेद बना देती थी यही आम, आलू इत्यादि छिलने के काम आता था।
कुछ सुतूही बिन छेद के रखी जाती थी जिससे दूध वाले बर्तन में लग कर सूखा दूध खुरचा जाता था या करोवा जाता था इसे हम सब खुरचुनी या करवनी कहते थे इसका अपना अलग ही आनंद था। कान में दुधाहड़ी खुरचने की आवाज आ जाए तो हथेली पसारे आजी के सामने खड़े हो जाते थे। इस खुरचनी का आनंद जिसने खाया है वही जानता है।
जब बच्चे छोटे होते थे मां का दूध उनके लिए पर्याप्त नहीं हो पाता था तब इसी सीपी से उन्हें दूध पिलाया जाता था। दवा भी इसी से पिलाते थे तब लोग चम्मच का प्रयोग नही किया करते थे।

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