किवदंती से कम नहीं थे ओमप्रकाश

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किवदंती से कम नहीं थे ओमप्रकाश
अनूप नारायण सिंह

19 दिसंबर 1919 को जम्मू में जन्मे ओमप्रकाश (बक्शी) को लोग आमतौर पर कॉमेडियन के रूप में जानते हैं. लेकिन वास्तव में उन्हें एक्टिंग के किसी के फ्रेम में बांधना ज्यादती है. वो किवदंती थे. किसी भी किरदार में बाँध दो, फिट हो जाते थे. चाहे विलेन हो या कॉमेडियन या सहृदय बाप या कंजूस दादा. वो कोई कार्टून किस्म के कॉमेडियन नहीं थे. कॉमेडी उनकी वाणी में थी, अंदाज़ में थी. कॉमेडी उनकी लाईफ़स्टाईल थी. बहुत ही मज़ेदार शख़्स. इसके उलट भीतर झांकें तो उनकी ज़िंदगी बहुत ट्रैजिक और उतार-चढ़ाव वाली रही, बावज़ूद इसके कि वो एक अमीर ख़ानदान से ताल्लुक रखते थे. जम्मू में उनके पिता की अथाह ज़मीन-जायज़ाद थी. मस्ती और मसखरी, आराम की ज़िंदगी चल रही थी. उन्हें जाने कैसे संगीत का शौक चर्राया. वो गाने लगे. इसी शौक के तहत वो आल इंडिया रेडियो पहुँच गए. वहां वो एक्टिंग भी करने लगे. एक साप्ताहिक प्रोग्राम में उन्हें फ़तेहदीन का रोल मिला जो बहुत मशहूर हुआ. तब उन्हें 40 रूपए महीना तनख्वाह मिलती थी. एक दिन एक समारोह में उन्हें ठिठौली करते फिल्म प्रोड्यूसर दलसुख पंचोली ने देखा. लाहोर आने की दावत दी. ये पार्टीशन से पहले का दौर था. तब लाहोर नार्थ इंडिया की बहुत बड़ी फिल्म नगरी थी, उर्दू और पंजाबी फिल्मों का बहुत बड़ा सेंटर.
ओमप्रकाश जम्मू से लाहोर पहुंचे. वहां से दलसुख पंचोली को फोन लगाया, मैं ओमप्रकाश बोल रहा हूँ. लेकिन पंचोली ने उन्हें पहचानने से इंकार कर दिया. वो बहुत निराश हुए. लौटने को ही थे कि उन्हें प्राण मिल गए. प्राण ने बताया, पंचोली को ग़लतफ़हमी हुई है, वो आपको फ़तेहदीन के नाम से जानते हैं. प्राण ने उन्हें प्रोडक्शन मैनेजर में मिला दिया और ‘दासी’ (1944) में एक कॉमिक विलेन का रोल मिल गया. उनकी तनख्वाह तय हुई, अस्सी रूपए महीना. फिल्म हिट हो गयी. अपनी पहली ही फिल्म से ओमप्रकाश ने तमाशबीनों के दिल में जगह बना ली. अगली फ़िल्म थी ‘धमकी’. तब तक ओमप्रकाश की गर्दन तन चुकी थी लेकिन उन्हें इस बात की तकलीफ़ थी कि उनसे कम मेहनत करने वालों की पगार ज़्यादा है. वो पंचोली से मिले। पंचोली ने तुरंत मैनेजर को बुला कर डांटा. उनकी पगार पांच सौ रूपये हो गयी. एक हज़ार का चेक पंचोली ने दिया, जिसे ओमप्रकाश ने जम्मू जाकर पिता के चरणों में रख दिया, पहली कमाई. पिता बहुत खुश हुए, बहुत चर्चे हो रहे हैं तेरे नाम के, पुत्तर बड़ा होके बड़ा नाम करेगा. ‘धमकी’ भी हिट हुई. अब तो ओमप्रकाश की बल्ले-बल्ले.
बीआर चोपड़ा ने बतौर फिल्म क्रिटिक उनकी बहुत तारीफ़ की और एक फिल्म भी साइन कराई. लेकिन तभी क़ुफ्र टूटा. पार्टीशन ज़ोर पकड़ गया और तय हो गया कि लाहोर हिंदुस्तान में नहीं पाकिस्तान में रहेगा. हर तरफ दंगे-फसाद-आगजनी. एक पारिवारिक मित्र नूर मोहम्मद, जो हॉकी के खिलाड़ी थे, की मदद से ओमप्रकाश सपरिवार किसी तरह सरहद पार सुरक्षित अमृतसर पहुंचे. फिर काम की तलाश में दर-दर भटकने लगे. एक दिन उन्हें बीआर चोपड़ा का ख़त मिला, बम्बई आ जाओ. ओमप्रकाश बम्बई पहुंचे. लेकिन तब चोपड़ा किसी काम से बम्बई से बाहर थे. ओमप्रकाश तब बम्बई में किसी को जानते नहीं थे. भटकते हुए उनकी भेंट खुशीराम से हुई. उसने तरस खाकर ओमप्रकाश को अपनी चाल में जगह दे दी. कालांतर में जब खुशीराम का इंतकाल हुआ तो उसके बाल-बच्चों को ओमप्रकाश ने ही पनाह दी और खुशीराम की बेटी को अपनी बहू बनाया.
एक शाम ओमप्रकाश की रामदास चंदकिशोर से मुलाक़ात हो गयी. वो उनका बचपन का दोस्त था और यहाँ बम्बई में अच्छा कारोबार कर रहा था. उन्होंने उससे कुछ रूपए उधार लिए ताकि एक खोली खरीद कर छत का इंतज़ाम हो जाए. कालांतर में जब रामदास का बिज़नेस डाउन हो गया तो ओमप्रकाश ने उन्हें एक कपड़े का शोरूम खोल कर दिया. बहरहाल, ओमप्रकाश ने बीआर चोपड़ा को ख़त लिखा, मुझे बम्बई बुला कर तुम पंजाब जाकर बैठ गए, मैं यहाँ भटक रहा हूँ. चोपड़ा ने जवाब दिया, कुत्तों की तरह दर-दर ठोकर खाते हुए तुम्हें काम मिल जाना चाहिए था. इससे ओमप्रकाश को बहुत तकलीफ़ हुई. उन्हीं दिनों एक लोकल ट्रेन में उन्हें राजेंद्र कृष्ण और ओपी दत्ता मिले. उन्होंने ओमप्रकाश को पहचान लिया, लाहोर में दासी और धमकी में तुम्हारा रोल ज़बरदस्त था. जल्दी ही ओमप्रकाश की उनसे अच्छी दोस्ती हो गयी. एक दिन राजेंद्र कृष्ण ने बताया कि ओपी दत्ता फिल्म बना रहा है, तुम्हें बुलाया है. ओमप्रकाश बहुत गरूर वाले और ज़िद्दी बंदे थे. कहने लगे, मैं उसके पास नहीं जाऊँगा. उसे खुद मेरे पास आना चाहिए. तब राजेंद्र कृष्ण ने उन्हें ऑफर दिया कि जब तक कोई काम नहीं मिल जाता तब तक मैं पचास रूपए हफ्ता देता रहूँगा ताकि तुम्हारा खाना-पीना चलता रहे. लेकिन खुद्दार ओमप्रकाश ने मना कर दिया.
एक दिन ओमप्रकाश बहुत भूखे थे. तीन दिन से कुछ खाया नहीं था. जेब में फूटी-कौड़ी नहीं थी. एक बढ़िया रेस्तरां में घुस गए. खूब जम कर खाया, लस्सी पी और काउंटर पर पहुँच कर बोले, मेरी जेब में कुछ नहीं है, जो भी काम हो मैं करने को तैयार हूँ. रेस्तरां का मैनेजर बहुत प्रभावित हुआ, अभी जाओ, फिर दे देना. कुछ ही दिन बाद जयंत देसाई ने उन्हें ‘लखपति’ (1948) में विलेन के रोल के लिए पांच हज़ार रूपए महीना नौकरी पर रख लिया और हज़ार रूपए एडवांस दिया. खज़ाना हाथ लग गया हो जैसे. उन्होंने सबसे पहले उस रेस्तरां का सोलह रुपये का उधार चुकाया और फिर कई डिब्बे सिगरेट के खरीदे. पिछले कई महीनों से उन्होंने सिगरेट नहीं पी थी. खुशीराम के साथ बैठकर खूब दारू पी. लेकिन जल्दी ही सारे पैसे ख़त्म हो गए. लेकिन जहाँ चाह वहां राह. उन्हें जयमणि दीवान ने पंजाबी फिल्म ‘चमन’ ऑफर की, साढ़े तीन सौ रूपए महीना. ओमप्रकाश भड़क गए, पांच हज़ार महीना मेरा रेट है, एक पैसा भी कम नहीं लूँगा. जयमणि ने कहा, दर-दर भटक रहे हो, दिमाग ख़राब है. ओमप्रकाश गुस्से से उठ खड़े हुए. जयमणि ने सरेंडर कर दिया, अच्छा ठीक है. लेकिन ओमप्रकाश ने कहा, पहले माफ़ी मांगो. ये फिल्म खूब चली और इसके बाद ओमप्रकाश ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा.
अपने परिवार को बम्बई बुला लिया. भाईयों को प्रोड्यूसर बनाया. उनके एक भाई पाछी के नाम से बहुत मशहूर हुए, एक्टिंग भी करते थे. उन्होंने इंसान जाग उठा, इंटरनेशनल क्रूक आदि कई फ़िल्में बनायीं. राजकपूर-राजश्री को लेकर ‘अराउंड दि वर्ल्ड’ (1967) भी बनाई थी. फिल्म तो डूबी ही, सारा पैसा भी डूब गया. खुद ओमप्रकाश ने भारत भूषण-मधुबाला की ‘गेटवे ऑफ़ इंडिया’ (1957) और फिर राजकपूर-नूतन को लेकर ‘कन्हैया’ (1959) डायरेक्ट कीं. गेटवे ऑफ़ इंडिया के लिए उन्होंने ज़िद्द पकड़ ली कि मधुबाला ही हीरोइन होगी. लेकिन मधु के बाप अताउल्लाह खान नहीं माने. ओमप्रकाश महा के ज़िद्दी, उनके घर पर धरना देकर बैठ गए, मधु से बात कराओ. और आख़िरकार ओमप्रकाश की तपस्या रंग लाई. मधु ने कहानी सुनी और मान गयी. उन्होंने 1961 में संजोग (प्रदीपकुमार-अनीता गुहा) और 1964 में ऐतिहासिक पृष्टभूमि पर ‘जहाँआरा’ (माला सिन्हा-भारतभूषण-पृथ्वीराजकपूर) भी प्रोड्यूस की. लेकिन इन फिल्मों का अपेक्षित सफलता नहीं मिली.
बतौर एक्टर ओमप्रकाश की गोल्डन फिल्म ‘आज़ाद’ (1955) थी, जिसमें वो दिलीप कुमार के साथ थे. कांस्टेबल 441 के रोल में उनकी हरकतें किसी कॉमेडियन से कम नहीं थीं. कई साल बाद वो ‘गोपी’ (1970) में दिलीप कुमार के बड़े भाई बने, ये पैरालल रोल था जिसमें वो कई जगह दिलीप कुमार को मात देते दिखे. ‘सगीना’ (1974) में भी वो दिलीप कुमार को कई बार डांटते दिखे. ‘साला मैं तो साहब बन गया…’ गाने में वो लाजवाब थे. ओमप्रकाश के दिलीप कुमार के निजी संबंध भी बहुत अच्छे थे. एक बार दिलीप कुमार उन्हें बतौर गवाह मधुबाला के घर ले गए. मधु से कहा, मैं तुमसे बेइंतहा मोहब्बत करता हूँ. अब्बू को छोड़ो और मेरे साथ चलो, अभी निकाह करते हैं. लेकिन मधु की अपनी मज़बूरियां थीं, नहीं मानी.
कहते हैं प्रकाश मेहरा जब ‘ज़ंज़ीर’ के लिए हीरो की तलाश में थे तो प्राण के साथ-साथ ओमप्रकाश ने भी अमिताभ बच्चन की सिफारिश की थी. बाद में वो कई बार अमिताभ के साथ दिखे. जैसे, लावारिस, शराबी, नमक हलाल आदि. राजकपूर को तो उन्होंने ‘कन्हैया’ में डायरेक्ट भी किया. तेरे घर के सामने और जाली नोट में वो देवानंद के साथ थे. अशोक कुमार के साथ हावड़ा ब्रिज, दिल दौलत और दुनिया और खूबसूरत में दिखे. यानी उस दौर में हर बड़े एक्टर के साथ रहे और बाद की पीढ़ी के अमिताभ और राजेश खन्ना के साथ भी रहे. जनरेशन गैप उनके लिए मुद्दा नहीं रहा.
यों तो ओमप्रकाश का हर रोल यादगार रहा, लेकिन मुझे कुछ ही याद हैं. ‘आपकी परछाइयां’ में वो हकीम विलायतीराम होते हैं. मरीज़ के पेट में दर्द है लेकिन आँख की दवा देते हैं. कहते हैं आँख ठीक होती तो न जला हुआ खाता और न पेट में दर्द होता. ‘प्यार किये जा’ के उस क्लासिक सीन को कोई नहीं भूल सकता जिसमें ओमप्रकाश को उनके बेटे बने महमूद भूतिया फिल्म की कहानी सुना रहे हैं. चाचा ज़िंदाबाद, दस लाख, साधु और शैतान, बुड्ढा मिल गया, जोरू का गुलाम, नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे, जूली, चुपके चुपके आदि दर्जनों फ़िल्में रहीं जिनकी कहानी उनके किरदार के आसपास ही घूमती रहीं. इसके अलावा पड़ोसन, गोलमाल, चमेली की शादी, मिस मैरी, ख़ानदान, हरियाली और रास्ता, दिल अपना प्रीत पराई, पति पत्नी, मेरे हमदम मेरे दोस्त, एक श्रीमान एक श्रीमती, डोली, चिराग, अमर प्रेम, आँख-मिचोली, अनुराग, रोटी, लावारिस, नमक हलाल आदि अनेक फ़िल्में हैं जिनमें उनके किरदार भले छोटे-बड़े रहे लेकिन उनकी अपनी छाप ज़रूर रही. उनकी फिल्मों की फेहरिस्त तीन सौ के करीब है. नब्बे के सालों में वो बहुत उदास हो गए. एक साल के भीतर पत्नी, भाई और कई करीबी रिश्तेदार और मित्र गुज़र गए. उन्होंने 1992 में फिल्मों से सन्यास ले लिया. बोले, करीब पचास साल फिल्मों को दे दिए, काफी हैं. 21 फरवरी 1998 को दिल की बीमारी के चलते वो दुनिया से रुखसत हो गए.
चलते-चलते एक और हक़ीक़त. ओमप्रकाश एक लड़की से प्यार करते थे और वो भी उनको बहुत चाहती थी, लेकिन उससे शादी नहीं कर पाए. हुआ ये कि एक बहुत ही ग़रीब और बेसहारा बेवा उनके घर आई. उसकी पांच बेटियां थीं. उसकी अर्ज़ थी अगर उनकी बड़ी बेटी से वो शादी कर लें तो बाकी बहनों का भी भला हो जाएगा. ओमप्रकाश मना नहीं कर पाए. अपनी प्रेमिका से भी बात की. उनकी प्रेमिका ने दिल पर पत्थर रख कर उन्हें उस बेवा की बेटी से शादी करने की इजाज़त दे दी.
(लेखक फिल्म सेंसर बोर्ड कोलकाता रीजन एडवाइजरी कमेटी के सदस्य हैं)

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